Sunday, December 18, 2016



काल्ह करै सो आज कर 

सूक्ति का स्पष्टीकरण – यह सूक्ति सुख कार्यों के बारे में कही गई है | इसका अर्थ है – सुभ कामों में देर नहीं करनी चाहिए | काम अच्छा हो तो उसे कल पर नहीं छोड़ना चाहिए | उसे तुरंत आरंभ कर देना चाहिए |

सफलता का मंत्र – समय- नियोजन – सफलता-प्राप्ति का मूल मंत्र है – अपने समय का सदुपयोग करना | सदुपयोग का अर्थ है – तुरंत कार्य में लग जाना | जीवन में अनेक दबाव आते हैं | अनके व्यस्तताएँ आती हैं | व्यस्तताओं से अधिक मन का घेरता है – आलस्य और निम्मापन | जो व्यक्ति व्यस्तताओं का बहाना बनाकर या आलस्य में घिरकर सुभ कार्यों को टाल देता है, उसकी सफलता भी टल जाती है | इसके विपरीत, जो मनुष्य सोच-समझकर योजनापूर्वक सुभ कार्यों की और निरंतर कदम बढ़ाता चलता है, एक दिन सफलता उसके चरण चूम लेती है |

टालू-प्रवृति घातक – आज के काम को कल पर डालने की प्रवृति सबसे घटक है | इस प्रवृति के कारण मन में असंतोष बना रहता है | मनुष्य के सर पर अनेक कामों का बोझ बना रहता है | इससे काम को तलने की ऐसी आदत लग जाती कि सुभ कार्य करने की घड़ी आती ही नहीं |

कुछ उदाहरण – जो मनुष्य घर में सफाई करने के काम को टालते रहते हैं, उन्हें गंदगी में रहने की आदत पड़ जाती है | उनका घर हमेशा बिखरा-बिखरा रहता है | उसके घर में जले मिलेंगे, कहीं कोई बटन टुटा हुआ मिलेगा तो कहीं कोई पानी का नल बहता मिलेगा |

सरकारी कार्यालयों का हाल देखिए | जो कर्मचारी आज की फाइल कल पर टाल देता है, उसकी मेज़ पर फाइलों का ढेर लगता चला जाता है | परिणाम यह होता है कि वह उन्हें देख-देखकर चिड़चिड़ा हो उठता है | वह एक भी फाइल नहीं निपटाता | दिल्ली प्रशासन में ऐसे-ऐसे कर्मचारी है जिनकी ज़िंदगी बीत जाती है किंतु उन्हें नौकरी पक्की होने का एक प्रमाण-पत्र तक नहीं मिल पाता |

निष्कर्ष – मनुष्य को चाहिए कि वह आज के काम को आज ही करके सोए | इससे उसे अच्छी नींद आएगी | वरना रात को भी कल के बचे हुए काम के सपने आएँगे जो उसे सोने नहीं देंगे |




दैव-दैव आलसी पुकारा 

आलसी ही दैव (भाग्य)  का सहारा लेता है – भाग्य आलसियों के सहारे जीवित रहता है | जो लोग परिश्रम करने में मन चुराते हैं, वही भाग्य का दामन थामने हैं | परिशमी लोग अपना भाग्य स्वयं बनाते हैं | वे कठोर परिश्रमकरके पाने लिए रोटी, कपड़ा, मकान जुटा लेतें हैं | जबकि आलसी लोग कहते हैं – ‘क्या करें’, हमारी किस्मत में यही बदा था | ’एक प्रसिद्ध कथन है – ‘समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को नहीं मिलता |’ आलसी लोग इस उक्ति का सहारा लेकर बैठ जाते हैं | वे कहते हैं – जब समय आयेगा, भाग्य जागेगा तो साडी चीज़ें अपने-आप मिल जाएँगी | इसलिए वे भूलकर भी परिशाम नहीं करते |
भाग्यवादी निकम्मा होता है – भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला व्यक्ति निकम्मा होता है | वह हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाता है | उसे भ्रम रहता है कि जो कुछ होगा, किसी और शक्ति के चाहने पर होगा | उसके करने से कुछ नहीं हो सकता | अत: भाग्यवान उसे निकम्मा बना देता है |
विघ्न-बाधायों से डरता है, उसका मुकाबला करने से बचता है – वास्तव में उसे कठोर परिश्रम करने में डर लगता है | भूखा होने पर भी वः सोचता है कि पेड़ पर चढ़कर फल कौन तोड़े, फावड़ा उठाकर मिट्टी कौन खोदे, कौन दिन-भर रेहड़ी पर संतरे बेचता फिरे ! उसकी यही सोच उसे निकम्मा बना देती है | यही सोच उसे मुसीबतों का मुकाबला करने से रोकती है | यदि मनुष्य यह सोच ले कि परिश्रम करने से मुझे रोटी अवश्य मिलेगी, तो वह हँसते-हँसते  फावड़ा चला लेगा, खुसी से पेड़ पर चढ़ जाएगा, उत्साह-पृवक दिन-भर संतरे बेच लेगा और विशाल ज्ञान-राशि को रचा-पचा जाएगा |
निराश, उदासीन और पराश्रित रहता है – भाग्यवादी का दुभाग्य यह है कि वह हमेशा निराश, उदासीन और पराश्रित रहता है | उसे कर्म करने के उत्साह का अनुभव नहीं होता | उसे अपने परिश्रम के प्राप्त फल का सुख नहीं मिल पाता | उसके जीवन में कोई आशा अंकुरित नहीं हो पाती | इसलिए वः सदा भूखा-नंगा, गरीब, निराश और उदासीन रहता है | भूख के मारे उसे औरों से माँगने की आदत पड़ जाती है | इसलिए वह पराश्रित हो जाता है |
परिश्रम सौभाग्य का निर्माता है – सौभाग्य का वास्तविक आधार है – परिश्रम | परिश्रमी व्यक्ति अपना सोया भाग्य जगाकर सौभाग्यशाली बन जाते हैं | वास्तव में संसार में जितने भी निर्माण हुए हैं, वे परिश्रम की ही कहानी कहते हैं | जितनी फसलें उगती हैं, जितने वस्त्र-आभूषण बनते हैं, जितने भवन उद्योग बनते हैं, सब परिश्रम से ही बनते हैं | अत: परिश्रम सौभाग्य का जनक है और आलस्य दुभार्ग्य का | इसलिए कहा गया है – 

जो सोया है, वह कलियुग है |
जो बैठ गया, वह द्वापर है |
जो खड़ा हो गया, त्रेता है |
जो चल पड़ा, वह सतयुग है |

अत: ‘चरैवैति चरैवैति’| चलते रहो, चलते रहो |



यहाँ चाह वहाँ राह
कहावत की भाव, चाह से तात्पर्य – ‘जहाँ चाह, वहाँ, राह’ एक कहावत है | इसका तात्पर्य है – जिसके मन में चाहत (इच्छा) होती है, उसके लिए वहाँ रास्ते अपने-आप बन जाया करते हैं | ‘चाह’ का अर्थ है – कुछ करने या पाने की तीव्र इच्छा |
सफलता के लिए कर्म के प्रति रूचि और समर्पण – सफलता पाने के लिए करम में रूचि होना अत्यंत आवश्यक है | जो लोग केवल इच्छा करते हैं किंतु उसके लिए कुछ करना नहीं चाहते, वे खयाली पुलाव पकाना चाहते हैं | उसका जीवन असफल होता है | सफल होने की लिए कर्म के प्रति पूरा समर्पण होना चाहिए | जयशंकर प्रसाद ने लिखा है –

ज्ञान दुर्कुछ्किर्य भिन्न है 
इच्छा क्यों पूरी हो मन की |
एक-दुसरे से न मिल सकें 
यही विडंबना है जीवन की ||

कठिनाईयों के बीच मार्ग-निर्माण – कर्म के प्रति समर्पित लोग रास्ते की कठिनाईयों से नहीं घबराया करते | कविकर खंडेलवाल के शब्दों में – 

जब नाव जल में छोड़ दी 
तूफान ही में मोड़ दी 
दे दी चुनौती सिंधु को 
फिर पार क्या, मँझधार क्या !

वास्तव में रस्ते की कठिनाइयाँ मनुष्य को चुनौती देती हैं | वे युवकों के पौरुष को ललकारती हैं | उसी में से कर्मवीरों को काम पूरा करने की प्रेरणा मिलती है | इसलिए कठिनाईयों को मार्ग-निर्माण का साधन माना चाहिए |

कोई उदाहरण, सूक्ति – देश को स्वतंत्रता कैसे मिली ? गाँधी जी ने सत्याग्रह का प्रयोग क्यों किया ? अंग्रेजी अनुसार सत्य और अहिंसा के पथ पर रहते हुए विरोध किया | अंग्रेजों की डिग्रियाँ फाड़ डालीं | भारत में आकर नमक कानून तोड़ा | भारत छोड़ों आंदोलन चलाया | परिणाम यह हुआ कि सारा भारत जाग उठा | एक दिन 

भारत स्वतंत्र हो गया | एक गईं की पंक्ति है –
तू चल पड़ा तो चल पड़ेगी साथ सारी भारती |
निष्कर्ष, प्रेरणा – इस कहावत से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि प्रबल इच्छा को मन में धारण करो | वह इच्छा शक्ति अपने-आप रास्ते तलाश लेगी | इच्छा शक्ति वह ज्वालामुखी है जो पहाड़ों की छाती फोड़कर भी प्रकट हो जाती है |




सत्संगति सब विधि हितकारी 
सत्संगति का अभिप्राय – सत्संगति का आशय है – अच्छी संगति, अच्छा साथ, भले साथी | संगति घर से ही आरंभ हो जाती है | यदि घर के सदस्य भले हैं सत्संगति घर से ही आरंभ हो जाती है | घर के बाहर व्यक्ति जिन भले लोगों के बीच में उठता-बैठता है, उसे सत्संगति करते हैं |
सुसंगति और कुसंगति के अच्छे-बुरे परिणाम – सत्संगति हो या कुसंगति-दोनों का प्रभाव अवश्य होता है | सत्संगति से मनुष्य अच्छे मार्ग पर चलता है | उसकी सुख प्रवृतियाँ जाग्रत होती हैं | उसके देवता जाग्रत होते हैं | वह अच्छे विचार और व्यवहार को देख-देखकर अच्छा आचरण करता है | इसके विपरीत कुसंगति से मनुष्य की राक्षसी प्रवुर्तियाँ जाग्रत हो उठती हैं | वह विलासी, अहंकारी तथा स्वेच्छाचारी बनने लगता है | सिगरेट, शराब, जुआ, आवारागर्दी कुंसंगती से ही बढ़ते हैं |
सत्संगति हितकारी कैसे ? – मनुष्य अच्छे लोगों में रहकर अच्छा आचरण करता है | वह सत्पुरुषों में अपना मान-सम्मान बढ़ाना चाहता है | भगतसिंह क्रांतिकारियों के संपर्क में आए तो क्रांतिकारी बन गए | यदि वे आवारा-बदचलन साथियों के बीच रहते तो शायद वैसे ही ढल गए होते | इस प्रकार सत्संगति ने उसके जीवन की दिशा बदल डाली | वे भारतवर्ष के चहेते बन गए | लोग उन्हें अब भी बलिदानी और क्रांतिकारी वीर के रूप में याद करते हैं |
सुसंगति की प्राप्ति और कुसंगति को छोड़ने के उपाय – मनुष्य मूलत: पशु है | इसलिए वह पशु-प्रवुर्तियों की ओर अधिक आसानी से झुकता है | कुसंगति में पाँव रखना बहुत सरल होता है किंतु उससे पीछा छुड़ाना बहुत कठिन होता है | मनुष्य की दृढ़ इच्छा-शक्ति ही उसे कुसंगति से बचा सकती है | बार-बार अपने मन को समझने से, विवेक से, अच्छे-बुरे की पहचान से ही कुसंगति से दूर रहा जा सकता है | किंतु जिसके लिए राम और रावण दोनों समान हैं, उसके लिए कीचड़ और कमल भी समान होते हैं | ऐसे लोग कुसंगति में पड़े रहते हैं | जिसे कमल की श्रेष्ठता का बोध होगा, वाही कीचड़ के बीच रहकर भी कमल जैसा खिल सकेगा | परंतु केवल बोध भी प्रभावी नहीं होता | दृढ़ इच्छाशक्ति आवश्यक होती है | यह इच्छाशक्ति प्रभु-कृपा से प्राप्त होती है | जिसके मन में सत्संगति की इच्छा नहीं होती, वह अभागा होता है | दुर्योधन कहता है – ‘मुझे पता है कि धर्म-अधर्म किया है ? परंतु क्या करूँ-धर्म ओर मेरी प्रवुर्ती नहीं है |’
सुसंगति सब सुखों का मूल – सत्संगति से सब प्रकारक के सुख प्राप्त होते हैं | अच्छी संगति में रहने वाला-मनुष्य पाप-बोध से रहित होता है | उसकी आत्मा स्वच्छ होती है | इसलिए उसके चेहरे पर दुःख, पश्चाताप, निराशा, अदि दुर्भाव नहीं होते | वह सदा अताम्विश्वास और उल्लास से खिल-खिला रहता है |



दया धर्म का मूल है 

तुलसीदास का दोहा – गोस्वामी तुलसीदास का प्रशिद्ध बचन है – 

दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान |
तुलसी दया न छोड़िये जा घट तन में प्राण ||

इस कथन से स्पष्ट होता है कि धर्म का मूल है – दया या करुणा | दया भाव से हिम्नुश्य का मन द्रवित होता है | किसी दुखी को देखकर उसका दुश दूर करने की कोशिश करना ही धर्म है | वास्तव में करुणा ईश्वरीय गुण है | भगवान कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है – जब जब धरा पर धर्म की हानि और अधर्म की अधिकता होती है, तब-तब में अवतार धारण करता हूँ | धरम की रक्षा के लिए स्वयं धरती पर जन्म लेना भगवन की करुणा ही है |
करुणा से महानता की ओर – संसार में जितने भी महान इन्सान हुए हैं, सबके जीवन में करूणा का अंग अवश्य रहा है | भगवान बुद्ध ने राजपाट छोड़कर दुखी लोगों के दुःख दूर करने में अपना जीवन लगा दिया | नानक ने संसारिकता त्यागकर ही महानता अर्जित की | गाँधी जी ने अपनी वकालत त्यागकर देशवासियों के लिए कर्म किया, तभी सारे देश ने उन्हें अपना बापू माना | वास्तव में जब भी कोई व्यक्ति अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर जनहित का आचरण करता है, वह हमारे लिए पूज्य बन जाता है |

करूणा निस्वार्थ होती है – करुणा सात्विक भाव है | करूणा न तो अपने-पराए का भेदभाव देखती है, और न ही अपनी हनी की परवाह करती है | करूणा में अदभुत प्रेरणा होती है | दयावान किसी को कष्ट में देखकर चुपचाप नहीं बैठ सकता | उनकी आत्मा उसे मज़बूर करती है कि दयावान दया करने से पहले अपना हानि-लाभ निश्चित करे | यहाँ तक कि वह किसी के प्राण बचाकर भी उसके बदले उससे कुछ नहीं चाहता | दया निस्वार्थ ही होती है |
एक प्रसिद्ध सूक्ति है – “नेकी कर कुएँ में डाल |” यह सूक्ति करूणा की ही व्याख्या करती है, वही उसका उचित मूल्य है |
करूणा रक्षा में सहायक है – भगवान ने करूणा की भावना मनुष्य को इसलिए दी है ताकि यस संसार बना रहे | अगर कोई राक्षस किसी बेकसूर को मारे, या किसी की रोटी छीने तो यह करूणा आदमी को प्रेरणा देती है कि बेकसूर की रक्षा हो | न्याय की रक्षा करना धर्म है |



जब आवै संतोष धन, सब धन धुरि समान 

तृष्णा का दुःख – महात्मा गाँधी लिखते हैं – “यह वसुंधरा अपने सारे पुत्रों को धन-धन्य दे सकती है, किंतु ‘एक’ भी व्यक्ति की तृष्णा को पूरा नहीं कर सकती |” यह पंक्ति अत्यंत मार्मिक है | इसे पढ़कर यह रहस्य उद्घाटिल होता है कि मनुष्य का असंतोष उसकी समस्याओंका मूल है | उसकी प्यास कभी शांत नहीं होती |

दुःख का कारण – वासनाएँ – मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक विविध वस्तुओं के पीछे पागल हुआ घूमता है | कभी उसे खिलौने चाहिए, कभी खेल, कभी धन चाहिए, कभी यश, कभी कुर्सी चाहिए, कभी पद | इक सबके आकर्षण का कारण है – इसकी प्यास | मनुष्य इस प्यास को त्याग नहीं सकता | इस प्यास के मारे वह जीवन-भर इनकी गुलामी सहन करने को तैयार हो जाता है | वास्तव में उसकी गुलामी का कारण उसका अज्ञान है | उसे पता ही नहीं है कि वस्तुओं में रस नहीं है, अपितु इच्छा और इच्छा-पूर्ति में रस है | जिस दिन उसे अपाने इस मनोविज्ञान का बोध हो जाएगा, तब भी उससे यह गुलामी छोड़ी नहीं जा सकेगी, क्योंकि इच्छाएँ अभुक्त वेश्याएँ हैं जो मनुष्य को पूरी तरह पि डालती हैं और फिर भी जवान बनी रहती हैं |

वासनाओं का समाधान – इस प्रश्न का उत्तर गीता में दिया गया है – ज्ञान, वैराग्य और अभ्यास से मन की वासनाओं को शांत क्या जा सकता है | जब वस्तुएँ व्यर्थ हैं तो उन्हें छोड़ना सीखें | सांसारिक पदार्थ जड़ हैं, नश्वर हैं तो उनकी जगह चेतक जगत को अपनाना सीखें | परमात्मा का ध्यान करें | मन बार-बार संसार की और जाए तो साधनापुर्वक, अभ्यासपूर्वक उसे परमात्मा की ओर लगाएँ | इन्हीं उपायों से मन में संतोष आ सकता है | संतोष से स्थिरता आती है और स्थिरता से आनंद मिलता है | वास्तविक आनंद भी वही है जो स्थिर हो, चंचल ण हो | सांसारिक सुख चंचल हैं, जबकि त्यागमय आनंद स्थायी हैं | अतः यह सच है कि ‘ जब आवै संतोष धन, सब धन धुरि समान |’


Saturday, December 17, 2016


मन के हारे हार है, मन के जीते जीत 

मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति : मन – मानव की सबसे बड़ी शक्ति ‘मन’ है | मनुष्य के पास मन है, इसलिए वह मनुष है, मनुज है, मानव है | मानसिक बाले पर ही मनुष ने आज तक की यह सभ्यता विकसित की है | मन मनुष्य को सदा किसी-न-किसी कर्म में रत रखता है |

मन के दो पक्ष : आशा-निराशा – धुप-छाँव के समान मनव-मन के दो रूप हैं – आशा-निराशा | जब मन में शक्ति, तेज और उत्साह ठाठें मारता है तो आशा का जन्म होता है | इसी के बल पर मनुष्य हज़ारों विपतियों में भी हँसता-मुस्कराता रहता है |

निराश मन वाला व्यक्ति सारे साधनों से युक्त होता हुआ भी युद्ध हर बैठता है | पांडव जंगलों की धुल फाँकते हुए भी जीते और कौरव राजसी शक्ति के होते हुए भी हारे | अतः जीवन में विजयी होना है तो मन को शक्तिशाली बनाओ |

मन को विजय का अर्थ – मन की विजय का तात्पर्य है – काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार जैसे शत्रुओं पर विजय | जो व्यक्ति इनके वश में नहीं होता, बल्कि इन्हें वश में रखता है, वह पुरे विश्व पर शासन कर सकता है | स्वामी शंकराचार्य लिखते हैं – “जिसने मन जो जीत लिया उसने जगत को जीत लिया |”

मन पर विजय पाने का मार्ग – गीता में मन पर नियंत्रण करने के दो उपाय बाते गए हैं – अभ्यास और वैराग्य | यदि व्यक्ति रोज़-रोज़ त्याग या मोह-मुक्ति का अभ्यास करता रहे तो उसके जीवन में असीम बल बल आ सकता है |

मानसिक विजय ही वास्तविक वियज – भारतवर्ष ने विश्व को अपने मानसिक बल से जीता है, सैन्य-बल से नहीं | यही सच्ची विजय भी है | भारत में आक्रमणकारी शताब्दियों तक लड़-जीत कर भी भारत को अपना न बना सके, क्योंकि उनके पास नैतिक बल नहीं था | शरीर-बल से हारा हुआ शत्रु फिर-फिर आक्रमण करने आता है, परंतु मानसिक बल से परास्त हुआ शत्रु स्वयं-इच्छा से चरणों में लोटता है | इसीलिए हम प्रभु से य्ह्ही प्राथना करते हैं – मानसिक बल से परस्त हुआ शत्रु स्वयं-इच्छा से चरणों में लोटता है | इसीलिए हम प्रभु से यही प्रार्थना करते हैं – 

हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें |
दूसरों की जय से पहले, खुद को जय करें ||


Follow Me Here

Contact Form

Name

Email *

Message *

Popular Posts